मैं इक नन्ही सी कली थी
अपने ही रंगों में ढली थी
हँसता खिलता था बचपन मेरा
मैं बड़े ही नाज़ों में पली थी
ना मुझे फ़िकर थी जमाने की
वो उमर मेरी कितनी भली थी
अल्हड़ अठखेलियां थी बातों में
मैं तो अपने ही धुन में चली थी
चाँद सितारों को छूने की जिद्द मेरी
आश्माँ की चादर भी खुली थी
मेरे बचपन की नादानीयों में
माँ-पापा की मुहब्बत घुली थी
पर अब जहाँ जाती हूँ
मुझे बस हैवान नज़र आते हैं
और देख उनकी हैवानियत को
मैं डरकर सहम जाती हूँ।
कुछ मर्द रुपी जानवर
मेरे शहर में भी बसते हैं,
उतार कर प्रतिष्ठा इक नारी
हवस लिये चलते हैं,
बन के राजा बेटा खुद
इक रानी बेटी को डसते हैं।
कुछ मर्द रुपी जानवर
मेरे शहर में भी बसते हैं।
लानत है एसी मर्दानगी पर
जो अपने सीने में रखते हैं,
अपनी हवस मिटाने को
माँ बहनों पे गंदी नज़र रखते हैं,
कुछ मर्द रुपी जानवर
मेरे शहर में भी बसते हैं।
माँ जब तुमने मुझे छुआ था
उस छुअन से ही
ना जाने मुझे क्या हुआ था।
एक खून का गोला भर था तेरी पेट में
ना जाने कब तेरी धड़कनों ने
मेरी धड़कनों को छुआ था।
फिर करने लगा था
उछल कूद तेरी ही पेट में मैं
उस उछल कूद में पता ही ना चला
कब नौ महीने का हुआ था।
फिर तू लायी थी मुझे इस दुनिया में
और ना जाने कितना दर्द तुने सहा था
एक तरफ तेरी तड़प थी
और एक तरफ मेरी किलकारी।
सीने से लगाया था तुने
और मैं हर्षोलित हुआ था।
किस तरह लड़ती रही हो
प्यास से परछाइयों से
नींद से अंगड़ाइयों से
मौत से और ज़िंदगी से,
तीज से तन्हाइयों से
सब तपस्या तोड़ डालो
नारी तुम घुट- घुट कर
जीना छोड़ डालो।
किस तरह लड़ती रही हो
परेशानी और अत्याचार से
उत्पीड़न और बलात्कार से
दहेज़ और ससुराल में प्यार से,
पति के जुल्म और मार से
सब तपस्या तोड़ डालो
नारी तुम घुट- घुट कर
जीना छोड़ डालो।
किस तरह लड़ती रही हो
माँ बाप की दूरी से
मायके की मजबूरी से
समाज में नज़रों की छूरी से,
सब तपस्या तोड़ डालो
नारी तुम घुट- घुट कर